दरबार लसूड़ी शाह पर क़व्वाली से शहंशाह-ए-क़व्वाली तक का सफ़र
नुसरत फ़तेह अली ख़ान: दरबार लसूड़ी शाह पर क़व्वाली से शहंशाह-ए-क़व्वाली तक का सफ़र
- इमाद ख़ालिक़
- बीबीसी उर्दू
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21 सितंबर को हर दिन विश्व अल्ज़ाइमर्स दिवस मनाया जाता है और इस साल बीबीसी ने इसी सिलसिले में 'म्यूज़िक मेमोरीज़' के नाम से एक ख़ास मुहिम शुरू की है जिसमें संगीत के ज़रिए डिमेंशिया के शिकार लोगों की यादें लौटाने की कोशिश की जा रही है. इसी सीरीज़ के तहत बीबीसी उर्दू ने पाकिस्तान की सबसे मशहूर आवाज़ उस्ताद नुसरत फ़तेह अली ख़ान के करियर के शुरुआती सालों पर रोशनी डाली है.
सन 1960 के दशक में फ़ैसलाबाद के बुज़ुर्ग साईं मोहम्मद बख़्श उर्फ़ लसूड़ी शाह के दरबार पर एक कम उम्र का नौजवान नातिया कलाम (ईश्वर और मोहम्मद साहब की प्रशंसा में पढ़ी जाने वाली नज़्म) पढ़ता था. यह कोई बड़ी बात नहीं थी लेकिन किसी को यह अंदाज़ा नहीं था कि पंजाब का यह लड़का आगे चलकर संगीत की दुनिया में 'शहंशाह-ए-क़व्वाली' कहलाएगा.
उस नौजवान का संबंध क़व्वाल घराने से ही था. उस जैसे कई नौजवानों को बचपन से ही सुर, ताल और लय सिखाया जाता था चाहे वे चाहें या न चाहें.
लेकिन इस कम उम्र के लड़के के सुरों में ऐसी लय और उठान थी कि उसे सुनने वाले उसमें खो जाया करते थे.
लेकिन यह वह वक़्त था जब नुसरत को कोई नहीं जानता था. हां सबको यह ज़रूर मालूम था कि वो उस दौर के सबसे मशहूर क़व्वाल उस्ताद फ़तेह अली ख़ान के बेटे हैं.
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बचपन से संगीत को बनाया जुनून
नुसरत ने बचपन से ही संगीत को अपना जुनून बना लिया था और सिर्फ़ 10 साल की उम्र में ही तबला बजाने में महारत हासिल कर ली थी.
1960 के दशक के शुरू में ही अपने पिता उस्ताद फ़तेह अली ख़ान की मौत के बाद उन्होंने अपने चाचा उस्ताद मुबारक अली ख़ान और सलामत अली ख़ान से क़व्वाली की शिक्षा लेनी शुरू की. 70 के दशक में उस्ताद मुबारक अली ख़ान की मौत के बाद अपने क़व्वाल घराने का नेतृत्व किया.
फ़ैसलाबाद के मशहूर झंग बाज़ार के एक दरबार से अपने संगीत सफ़र की शुरुआत करने वाले इस शख़्स पर पहली नज़र मियां रहमत की पड़ी जो फ़ैसलाबाद में ग्रामोफ़ोन रिकॉर्ड्स की दुकान के मालिक थे.
उनके नुसरत के पिता उस्ताद फ़तेह अली ख़ान से पहले ही संबंध थे.
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गाने वाला थक गया, नुसरत का तबला नहीं रुका
वो बताते हैं कि उनके पिता नुसरत के घराने को 1960 के दशक से जानते थे.
वो कहते हैं, "सबसे पहले मेरे पिता की मुलाक़ात नुसरत के पिता से हुई थी जो फ़ैसलाबाद के मशहूर क़व्वाल थे."
"नुसरत से मेरे पिता की जान-पहचान बचपन से ही थी मगर 70 के दशक में जब अपने चाचा उस्ताद मुबारक की मौत के बाद उन्होंने अपने क़व्वाल घराने को संभाला तो मेरे पिता ने उन्हें बतौर गायक नोटिस किया."
मियां असद कहते हैं, "शुरुआत में नुसरत फ़ैसलाबाद के एक सूफ़ी बुज़ुर्ग साईं मोहम्मद बख़्श अलमारूफ़ बाबा लसूड़ी शाह के दरबार पर नातिया कलाम पढ़ते और क़व्वाली गाया करते थे. उनका घर भी उस दरबार के सामने था."
मियां असद के मुताबिक़, उस्ताद नुसरत ने क़व्वाली से पहले तबला बजाने की शिक्षा हासिल की थी और तबला मजाने में उन्हें बहुत महारत हासिल थी.
वो अपने पिता से सुने एक क़िस्से का ज़िक्र करते हुए कहते हैं, "नुसरत जब 10-11 के थे तब क़व्वाली की महफ़िल में कोई तबला बजाने वाला नहीं मिल रहा था जिसके बाद नुसरत को तबला बजाने के लिए कहा गया. वहां पर उन्होंने ऐसी परफ़ॉर्मेंस दी कि गाने वाला थक गया लेकिन नुसरत नहीं थके और सुनने वालों पर उन्होंने एक जादू सा कर दिया."
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'कलाम चुनना और पढ़ना नुसरत ने सिखाया'
मियां असद का उस्ताद नुसरत से मिलने का सिलसिला ग्रामोफ़ोन रिकॉर्डिंग स्टूडियो और घर पर मुलाक़ातों का सिलसिला शुरू हो चुका था. हालांकि, उनका नुसरत के साथ पेशेवाराना संबंध 1992 में तब क़ायम हुआ जब वह अपने पिता के कारोबार में उनका हाथ बंटाने लगे.
मियां असद बताते हैं कि उनके पिता 1970 के दशक में नुसरत को अपने रिकॉर्डिंग स्टूडियो ले आए जहां से उन्होंने अपनी क़व्वालियों और ग़ज़लों की रिकॉर्डिंग शुरू की और फिर तरक़्क़ी और शोहरत की मंज़िलों को छूते चले गए.
मियां असद बताते हैं कि रहमत ग्रामोफ़ोन में रिकॉर्ड की गई नुसरत की शुरुआती कुछ क़व्वालियों में से एक 'यादां विछड़े सजन दियां' और दूसरी 'अली मौला, अली मौला' थीं जो दुनियाभर में बहुत प्रसिद्ध हुईं.
वो बताते हैं कि इसके अलावा और भी सैंकड़ों क़व्वालियां रिकॉर्ड की गई थीं.
"उनकी बेशुमार रिकॉर्डिंग का एक ऐसा सिलसिला शुरू हो गया और वह हमारे स्टूडियो रिकॉर्डिंग्ज़ के लिए आते रहे.'
मियां असद के मुताबिक़ रहमत ग्रामोफ़ोन हाउस रिकॉर्डिंग कंपनी ने नुसरत के 100 से अधिक म्यूज़िक एलबम रिकॉर्ड करके मार्केट में रिलीज़ किया.
जिनमें सूफ़ी बुज़ुर्ग बाबा बुल्ले शाह का कलाम 'समेत दूसरे कलाम शामिल हैं.'
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ऐसे एक और शख़्स इलियास हुसैन हैं जो नुसरत की जवानी से उनके शिष्य और उनकी क़व्वाल पार्टी में बतौर प्रॉम्प्ट शामिल होते आए थे.
58 साल के इलियास हुसैन कहते हैं, "हमारा ख़ानदान फ़तेह अली ख़ान के घराने में कई पुश्तों से सेवा देता आया है. मैं सन 1975 से नुसरत फ़तेह अली ख़ान को जानता हूं, मैं स्कूल जाता एक बच्चा था और पिता के साथ उनके यहां काम करने जाता था. मैं उनका शागिर्द था और 1983 से लेकर 1997 में उनके निधन तक उनकी क़व्वाल पार्टी में शामिल रहा."
उनका कहना है, "मेरे दादा और पिता भी उनके घराने के शागिर्द थे, हमें इस घराने से इश्क़ था."
वो कहते हैं, "10 साल की उम्र में जब मैंने उनके घर जाना शुरू किया तो राहत फ़तेह अली ख़ान के पिता उस्ताद फ़र्रूख़ फ़तेह अली ख़ान ने कहा कि मैं प्रॉम्प्ट का काम सीखूं. धीरे-धीरे मुझे उस्ताद नुसरत और फ़र्रूख़ फ़तेह अली ख़ान ने यह सिखाना शुरू कर दिया."
वो बताते हैं कि इसके बाद कलाम को चुनना, पढ़ना-लिखना सब उस्ताद नुसरत फ़तेह अली ख़ान ने ही उन्हें सिखाया.
इलियास हुसैन याद करते हुए बताते हैं कि रहमत ग्रामोफ़ोन में रिकॉर्ड करवाई जाने वाली मशहूर क़व्वालियों में 'लजपाल नबी मेरे दर्दां दी दवां' और ग़ज़लों में 'यादां विछड़े सजन दियां आयां' भी शामिल हैं.
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पहली बार सोलो
मियां असद उस्ताद नुसरत अली ख़ान की पहली सोलो रिकॉर्डिंग का क़िस्सा कुछ यूं बताते हैं, "ये 80 का दशक था और एक दिन उस्ताद नुसरत अली ख़ान रिकॉर्डिंग के लिए हमेशा की तरह वक़्त से पहले आ गए और इंतज़ार के बावजूद उनके साथी वक़्त पर नहीं पहुंचे. इसके बाद मेरे पिता ने उनसे पंजाब में कहा, 'आओ ख़ां साहब आज सोलो रिकॉर्ड कर देहां."
"इस पर नुसरत फ़तेह अली ख़ान पहले तो परेशान हुए मगर फिर मेरे पिता के ज़िद करने पर हामी भर दी और फ़ौरी तौर पर स्टूडियो में मौजूद एक शायर से ग़ज़ल लिखवाई गई और उन्होंने पहली बार सोलो रिकॉर्डिंग की शुरुआत की."
मियां असद कहते हैं, "उनकी शुरुआती सोलो रिकॉर्डिंग में सबसे ज़्यादा प्रसिद्ध 'सुन चरखे दी मिट्ठी-मिट्ठी कूक' थी."
"जब ये ग़ज़ल मार्केट में आई तो उनकी गायकी को एक नई प्रसिद्धि मिली. इसके कारण कई गायक और कलाकार हमसे नाराज़ भी हुए कि शायद अब ख़ां साहब को उनकी ज़रूरत नहीं रही."
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स्टूडियो में नुसरत का ख़ास सोफ़ा
रहमत ग्रामोफ़ोन के मालिक मियां असद याद करते हुए कहते हैं कि नुसरत का उनके पिता से संबंध बहुत गहरा और दोस्ताना था, क्योंकि वह बातचीत के शौक़ीन थे और अकसर दुकान पर आ जाया करते थे.
"भारी वज़न होने के कारण उन्हें वहां बैठने में ख़ासी दिक़्क़त पेश आती थी इसलिए मेरे बड़े भाई ने उनके लिए एक ख़ास सोफ़ा बनवाया ताकि वो उस पर बैठ सकें."
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सारी-सारी रात रियाज़
उस्ताद नुसरत के शागिर्द और साथी रहे इलियास हुसैन कहते हैं, "ख़ान साहब दुनिया के किसी भी हिस्से में कितना भी लंबा शो करके जब वापस होटल लौटते थे तो कहते थे कि उनका हार्मोनियम कमरे में रख दिया जाए, हम अपनी नींद पूरी करके जब उठते तो देखते कि वो उस पर रियाज़ कर रहे हैं."
इलियास हुसैन के मुताबिक़, उस्ताद नुसरत सोते वक़्त भी बिस्तर पर अपना हार्मोनियम साथ रखते थे और उनकी एक उंगली हार्मोनियम पर रहती थी.
वो कहते हैं कि यात्रा के दौरान जहाज़ में जब हार्मोनियम नहीं होता था तो उस्ताद नुसरत सीने या पेट पर ही उंगलियां रखकर सुरो का रियाज़ किया करते थे.
वो बताते हैं, "मैंने सारी ज़िंदगी उन्हें कभी हार्मोनियम के बग़ैर नहीं देखा."
मियां असद उस्ताद नुसरत फ़तेह अली ख़ान की संगीत और सुरों को लेकर समझ का एक क़िस्सा बताते हैं, "एक बहुत बड़े निजी कार्यक्रम में उस्ताद नुसरत जब परफ़ॉर्म कर रहे थे तब उनके संगीत पर लोग नोट लुटा रहे थे. इस दौरान उन्होंने एक साजिंदे की ओर इशारा किया और उससे कहा कि हार्मोनियम के सुर ठीक नहीं हैं देखो उसमें क्या दिक़्क़त है. जब ग़ौर से देखा गया तो उस बाजे की हवा वाली जगह पर एक हज़ार का नोट फंसा हुआ था जो सुरों को दबा रहा था."
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'तुम्हें मालूम है कि ये कौन हैं?'
मियां असद कहते हैं कि उस्ताद नुसरत बेहद मिलनसार, ईमानदार और दूसरों का लिहाज़ करने वाले शख़्स थे और वो बेहद संवेदनशील इंसान भी थे.
वो कहते हैं, "जैसा कि मेरे पिता ने उन्हें अपने रिकॉर्डिंग स्टूडियो के ज़रिए ब्रेक दिया, उसके बाद वो मेरे पिता को बड़ा मानते थे और उन्हें अपना बड़ा भाई कहते थे जबकि दोनों की उम्रों में बहुत फ़ासला था."
मियां असद कहते हैं कि उन दिनों नुसरत को बहुत प्रसिद्धि मिली तो रहमत ग्रामोफ़ोन का नाम भी ऊपर गया.
वो नुसरत की विनम्रता का एक क़िस्सा सुनते हैं कि नुसरत जब 90 के दशक में शोहरत की बुलंदियों पर थे तब उनसे मिलने उनके पिता और भाई लाहौर गए.
"उस समय कोई विदेशी समूह उनसे मिलने आया था तो मेरे पिता और भाई को उनके स्टाफ़ ने इंतज़ार करने के लिए कह दिया. इसके बाद इंतज़ार करते हुए एक घंटा हो गया. इस बात का पता जब उन्हें चला तो वो मुलाक़ात छोड़कर सीधे नंगे पांव बाहर भागते हुए आए और फ़ौरन मेरे पिता और बड़े भाई को अंदर लेकर गए और अपने स्टाफ़ से कहा कि तुम्हें मालूम है कि ये कौन हैं?"
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ज़मीन पर बैठने वाले को पैसे का लालच नहीं
मियां असद कहते हैं कि उस्ताद नुसरत में कई दूसरे कलाकारों की तरह पैसे का लालच नहीं था. वो कहते हैं कि उनके पिता जब जहां परफ़ॉर्म करने के लिए कहते, वो कर देते थे और न कभी पैसे के लिए पूछते थे और न मांगते थे.
इलियास हुसैन भी इस बात की पुष्टि करते हुए कहते हैं कि 'जिस किसी ने प्रेम से उस्ताद नुसरत को क़व्वाली के लिए कहा तो उन्होंने बिना पैसे के इसे क़ुबूल भी कर लिया.'
वो कहते हैं कि जब कोई मध्यवर्गीय व्यक्ति उन्हें आमंत्रित करता तो वो अपने स्टाफ़ से कह देते थे कि वे पैसे के लिए उस व्यक्ति को तंग न करें.
इलियास हुसैन कहते हैं, "मेरा उस्ताद एक दरवेश था. मुझे उनके साथ रहते हुए कभी महसूस नहीं हुआ कि वो किस क़दर बड़ी शख़्सियत हैं. उन्हें ज़मीन पर भी बैठा देते तो वो बैठ जाते."
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शौकत ख़ानम अस्पताल की फ़ंड रेज़िंग
इलियास हुसैन का कहना है कि जब 1992 वर्ल्ड कप के बाद इमरान ख़ान ने शौकत ख़ानम अस्पताल बनाने का ऐलान किया तो इस काम के लिए पैसा इकट्टा करने के लिए उन्होंने नुसरत फ़तेह अली ख़ान के साथ यूरोप और अमरीका का टूर किया.
इलियास हुसैन कहते हैं कि उनके उस्ताद ने इसमें इमरान ख़ान का पूरा सहयोग दिया और कई शो बिलकुल मुफ़्त किए.
नुसरत सिर्फ़ अपने प्रशंसकों और बड़ी शख़्सियतों से ही नहीं बल्कि साजिंदों और साथियों के साथ बहुत अच्छे अंदाज़ में पेश आते.
मियां असद कहते हैं कि जब भी वो रिकॉर्डिंग के लिए स्टूडियो आते तो एक-दो घंटे पहले आ जाते लेकिन उनकी क़व्वाली पार्टी के लोग काफ़ी देर से आते इस पर वो कभी ग़ुस्सा नहीं करते थे.
वहीं, इलियास हुसैन कहते हैं कि उस्तान नुसरत ने पार्टी के साथियों को सिर्फ़ घर पर डांटते थे वो कहते थे कि जो ग़लती हो वो यहीं होनी चाहिए परफ़ॉर्मेंस के दौरान कोई ग़लती नहीं होनी चाहिए और न ही उन्होंने परफ़ॉर्मेंस के दौरान किसी को डांटा.
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'सिंगिंग बुद्धा' से 'मिस्टर अल्लाह हू' तक का सफ़र
नुसरत फ़तेह अली ख़ान ने संगीत को नस्ल, रंग, धर्म और भाषा से अलग वो रोशनी दी कि हर कोई उनके सुरों, धुनों और संगीत का दीवाना हो गया.
एशिया, यूरोप या अमरीका हो उन्हें हर जगह उन्हें संगीत का बेताज बादशाह और शहंशाह क़व्वाल कहा जाने लगा.
इलियास हुसैन कहते हैं कि नुसरत पर सूफ़ियाना कलाम का रुहानी असर ऐसा होता कि वो उसमें खो जाते और उनकी आंखें नम हो जातीं.
वो कहते हैं, "यूरोप के दौरे पर जब उन्होंने 'अल्लाह हू अल्लाह हू' गाया तो गोरों को यह समझ नहीं आता था लेकिन वे दीवाने होकर झूमते रहते थे, उन्हें फ़्रांस में लोगों ने मिस्टर अल्लाह हू का ख़िताब दिया."
इलियास हुसैन कहते हैं कि नुसरत यूरोप में कहीं भी जाते तो लोग उन्हें 'मिस्टर अल्लाह हू' कहकर पुकारते थे.
जापान में जब उन्होंने फ़ुकुओका के संगीत मेले में परफ़ॉर्म किया तो उन्हें जापान के लोगों ने उन्हें सुरों और गायकी पर 'सिंगिंग बुद्धा' यानी संगीत के देवता का ख़िताब दिया.
नुसरत फ़तेह अली ख़ान की आवाज़ के जादू से शायद ही कोई बचा हो. मियां असद उसी का क़िस्सा बताते हैं कि उनके बड़े भाई की शादी में देश के चोटी के गायक आए थे उसी दौरान नुसरत 'वारियां साइयां तेरे वारियां' गा रहे थे और उस पर अताउल्ला ईसाखेलवी झूम रहे थे.
इलियास हुसैन अमरीका में एक लाइव शो का क़िस्सा बताते हैं कि जब उस्ताद नुसरत 'मेरा पिया घर आया' गाने लगे तो गोरे उस पर झूमने लगे, एक महिला इतना नाची की उसके पैर से ख़ून बहने लगा.
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50 घंटे की नायाब रिकॉर्डिंग
रहमत ग्रामोफ़ोन के मालिक मियां रहमत के बेटे मियां असद का दावा है कि आज भी उनके पास उस्ताद नुसरत फ़तेह अली ख़ान के गानों की पचास घंटे की ऐसी रिकॉर्डिंग है जो कभी मार्केट में नहीं आई है.
वो बताते हैं कि उनके पिता और बड़े भाई अरशद की मौत के बाद इस कंपनी को ख़त्म करके तमाम चीज़ों को बंद करके रख दिया गया.
उस्ताद नुसरत फ़तेह अली ख़ान दूसरे कलाकारों की काफ़ी मदद किया करते थे.
इलियास हुसैन कहते हैं कि इतनी कामयाबी के बावजूद वो दूसरे कलाकारों को नहीं भूलते थे, उन्होंने फ़ैसलाबाद के ही मशहूर सोलो ग़ज़ल गायक एजाज़ क़ैसर को अपनी धुनें और कलाम देकर गंवाया और उनकी बहुत हौसलाअफ़ज़ाई की.
इलियास हुसैन बताते हैं कि वो उनकी रिकॉर्डिंग विदेशी प्रोमोटर्स को सुनाते थे ताकि एजाज़ क़ैसर को भी विदेशी टूर मिलें.
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सरगम स्टूडियो की स्थापना और भारत का दौरा
उस्ताद नुसरत फ़तेह अली ख़ान 90 दशक की शुरुआत में ही लाहौर में ही अपना रिकॉर्डिंग स्टूडियो सरगम की शुरुआत की और बहुत सी रिकॉर्डिंग वो फिर वहीं करने लगे.
वो 90 के दशक की शुरुआत में ही फ़ैसलाबाद से लाहौर आ गए थे.
इलियास हुसैन बताते हैं कि बॉलीवुड फ़िल्म 'कच्चे धागे' के गीत के लिए जब नुसरत भारत आए तो होटल की लॉबी में उनके प्रशंसकों और कलाकारों की लंबी कतार थी.
वो कहते हैं, "होटल लॉबी पूरी तरह भर चुकी थी. आम लोगों के साथ-साथ वहां हेमा मालिनी जैसे बड़े कलाकार भी थे."
इंग्लैंड के अंतिम दौरे के दौरान ही नुसरत की वहां पर मौत हो गई. उस पर इलियास कहते हैं, "दौरे से पहले क़व्वाल पार्टी को सरगम बुलाया गया और कहा गया कि इंग्लैंड जा रहे हो और उसके बाद अमरीका का दौरा है जहां तुम लोगों से मुलाक़ात होगी. अब मेरी तबीयत ठीक नहीं रहती वापस आकर बस भारत को ही अमरीका बना देंगे और वहां शो किया करेंगे."
लेकिन उन्हें शायद ये मालूम नहीं था कि उनके जाने के बाद भी पूरी दुनिया उनकी क़व्वाली पर झूमती रहेगी.
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बेटी के रोने पर शो में देरी
उस्ताद नुसरत फ़तेह अली ख़ान की इकलौती औलाद उनकी बेटी निदा नुसरत हैं जो अब कनाडा में रहती हैं.
निदा नुसरत ने अपने पिता की यादों के बारे में कहा, "मैं उस वक़्त 13-14 बरस की थी जब उनका इंतक़ाल हो गया. मेरा उनके साथ ज़्यादा वक़्त तो नहीं गुज़रा लेकिन बचपन से होश संभालने के बाद 6-7 बरस की यादें आज भी मेरे साथ हैं."
उनका कहना था कि वो लेजेंड्री कलाकार की बेटी कहलाने में गर्व महसूस करती हैं, उनके जैसा कलाकार और पिता शायद ही कोई होगा.
वो कहती हैं कि लोग अब उनसे पूछते हैं कि वो अब दुनिया के सामने क्यों आई हैं क्योंकि लोग उनके बार में ज़्यादा जानते नहीं हैं तो वो कहती हैं कि उनके पिता कोई आम इंसान नहीं थे और वो आज भी 16 अगस्त (नुसरत की मृत्यु का दिन) के दिन में जी रही हैं.
निदा नुसरत अपने पिता की मोहब्बत के बारे में बताती हैं, "मुझे बचपन में पेन और कलर पैंसिल का बहुत शौक़ था. वो दुनिया में जहां भी जाते वहां से मेरे लिए अलग-अलग तरीक़े के पेन, कलरिंग बुक्स और कलर्स मेरे लिए लेकर आते. उनके सामान में आधा सामान मेरी चीज़ों का होता."
वो बताती हैं कि व्यस्त होने के कारण उनके पिता परिवार को ज़्यादा वक़्त नहीं दे पाते थे और इसका उन्हें एहसास था.
वो एक क़िस्सा बताती हैं, "एक बार विदेश से जब वो शो करके वापस आए तो मुझे गोद में लेते हुए बोला कि वो अब मेरे साथ वक़्त बिताएंगे. मैंने उनसे पूछा कि बाबा अब आप कितने दिनों के लिए मेरे साथ रहेंगे तो वो इस बात पर ज़ोर-ज़ोर से रोने लेग."
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निदा नुसरत के मुताबिक़, उनके पिता बेहद संवेदनशील स्वभाव के थे.
उनका कहना है कि विदेशी दौरों पर जब भी उन्हें अपने पिता के साथ जाने का मौक़ा मिलता तो वो उन्हें अपने बिलकुल सामने बैठाते और ब्रेक के दौरान स्टेज पर बुलाकर पूछते रहते.
बचपन का एक क़िस्सा निदा नुसरत बताती हैं, "मेरी उम्र उस वक़्त तक़रीबन छह साल थी और लंदन में एक शो के लिए मैं उनके साथ थी, घर से जल्दी निकलने के कारण मैं अपनी चूसनी भूल गई और जब शो के लिए हॉल में पहुंचे तो मैंने रोना शुरू कर दिया जिस पर बाबा परेशान हो गए."
"वो मुझे परेशान नहीं देख सकते थे, दूसरी तरफ़ शो ऑर्गनाइज़र उन्हें शो शुरू करने के लिए कह रहे थे. उन्होंने कहा कि जब तक मेरी बेटी चुप नहीं होगी मैं शो शुरू नहीं कर सकता."
"फिर एक व्यक्ति को घर भेजकर मेरी चूसनी मंगाई गई और जब मैं चुप हुई तो उन्होंने देरी से शो शुरू किया. शो के दौरान भी वो मेरे पास आकर मुझे प्यार करते रहे."
वो कहती हैं कि जब भी उनके पिता की कोई नई एलबम आती तो वो सबसे पहले उन्हें ही देते थे और फिर अगले दिन रिलीज़ करते थे, वो एलबम को अपने सिरहाने रखकर सोती थीं.
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निदा को क्या कभी उस्ताद नुसरत ने गाने के लिए कहा, इस सवाल पर वो कहती हैं, "हमारे घराने की परंपरा है कि औरतें नहीं गाती हैं, लेकिन कभी वो जब घर पर होते थे तो रियाज़ के दौरान मुझे बुला लेते थे और कहते थे मेरे साथ गाओ तो मैं उनके साथ कुछ गुनगुना लेती थी."
वो बताती हैं कि पेशेवाराना तौर पर उन्होंने कभी नहीं गाया लेकिन अभी भी घरेलू कार्यक्रमों में कुछ गुनगुना लेती हैं.
नुसरत की बेटी का कहना था कि वो बचपन में छोटी-छोटी बातों पर डर जातीं और अगर उनके पिता साथ होते तो उनके पीछे छिप जाती थीं.

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"वो हमेशा मुझे कहते थे कि तुम मेरी बेटी नहीं बेटा हो, कभी किसी चीज़ से घबराना नहीं और हमेशा हर चीज़ का बहादुरी से सामना करना."
"मुझे और मेरी मां को यह दुख रहा और हमेशा रहेगा कि काश हम भी लंदन में उनके आख़िरी दौरे पर उनके साथ चले जाते."